गुरु अर्जुन देव जी

महत्वपूर्ण जानकारी
=> गुरु अर्जुन देव जी सिख धर्म के पाँचवें सिख गुरु थे।
=> गुरु अर्जुन देव जी का जन्म 15 अप्रैल, 1563 को गोइंदवाल साहिब शहर में “श्री चौबारा साहिब”, जिला तरनतारन, पंजाब ( भारत ) में हुआ था।

=> गुरु अर्जुन देव जी के पिता का नाम गुरु राम दास जी और माता का नाम बीबी भानी जी था।
=> गुरु जी का परिवार “सोढ़ी खत्री” था।
=> दस गुरुओं में से पहले गुरु नानक देव जी “बेदी” वंश के खत्री थे। दूसरे गुरु अंगद देव जी “त्रेहन” वंश के खत्री थे। तीसरे गुरु अमर दास जी “भल्ला” वंश के खत्री थे। और चौथे गुरु राम दास जी से लेकर दसवें गुरु गोबिंद सिंह जी तक सात गुरु “सोढ़ी” वंश के खत्री थे। राम दास के बाद सोढ़ी वंश में गुरुगद्दी पैतृक ही रही।
=> गुरु जी के दो बड़े भाई पृथ्वी चंद और महादेव थे।
=> गोइंदवाल साहिब धर्मशाला से अर्जुन देव जी ने देवनागरी ( हिन्दी ) और “पण्डित बेनी” से संस्कृत भाषा की शिक्षा प्राप्त की तथा मामा “मोहरी” से गणित एवं ध्यान की विधियाँ सीखी। गुरु अर्जुन देव जी ने फ़ारसी भाषा “बाबा बूढ़ा जी” से सीखी थी।
=> गुरु अमर दास जी से बालक अर्जुन देव जी ने गुरुमुखी लिपि और गुरवाणी सीखी।
=> गुरु अर्जुन देव जी ने अपने बचपन के शुरुआती 11 साल गोइंदवाल में ही रहे।
=> 1574 में गुरु राम दास जी को गुरुगद्दी मिलने के बाद अर्जुन देव जी 11 साल की उम्र में गुरु राम दास जी के साथ “गुरु का चक्क (अमृतसर)” चले आये।
=> 20 जून 1579 को गुरु अर्जुन देव जी का पहला विवाह “चन्दन दास” की पुत्री माता “राम देई/राम देवी” से हुआ।जो की “कौशल खत्री” थे। लगभग 9 साल बाद 1588 में माता राम देई का देहांत हो गया। माता राम देई के कोई संतान नहीं थी।
=> 19 जून, 1589 में गुरु अर्जुन देव जी का दूसरा विवाह लुधियाना शहर के पास फिल्लौर शहर से 10 कि.मी. पश्चिम में स्थित “मऊ गाँव” (जिला जलंधर) के “भाई कृष्ण चंद” की बेटी “माता गंगा जी” से हुआ। यहाँ पर “गुरुद्वारा मऊ साहिब” बना हुआ है।
=> माता गंगा जी से विवाह करने के लिए मऊ जाते समय गुरु अर्जुन देव जी मऊ से 6 कि.मी. पहले कुछ झोपड़ियों वाली एक छोटी सी बस्ती “बिलगा” (जिला जलंधर) में दो दिन (17-18 जून, 1589) आराम करने के लिए रुके। बिलगा बस्ती अब शहर बन चूका है। बिलगा के लोगों ने गुरु जी की दिल से सेवा की और गुरु जी बहुत प्रसन्न हुए। दो दिन बाद जाते हुए गुरु जी ने स्नान करने के बाद जो कपड़े उतरे वो और अपनी व्यक्तिगत वस्तुएँ भेंट की। जो निम्न है :- सैली (टोपी), चौला, पजामा (पायजामा), हजुरीआ (दुपट्टा), रुमाल, बटुआ (पर्स), दुमाला (पगड़ी), हथ सिमरना (सिमरन माला), और चन्दन की चवंकी (छोटी स्टूल)।
=> बिलगा (जिला जलंधर) में कपड़े और व्यक्तिगत वस्तुएँ आज भी रखे हुए है। यहाँ पर अब ऐतिहासिक “गुरुद्वारा पातशाही पंजवीं श्री गुरु अर्जुन देव जी” बना हुआ है।
=> माता गंगा जी और गुरु अर्जुन देव जी के घर एकलौता पुत्र हरगोबिन्द जी (1595) का जन्म हुआ।
=> 1579 में गुरु रामदास जी के चचेरे भाई “साहरी मल जी” ने अपने बेटे की शादी में लाहौर आने का निमंत्रण पत्र गुरु राम दास जी को दिया। गुरु जी ने अपने चचेरे भाई को कहा “की वह तो बहुत व्यस्त रहते है, पर अपने तीनों पुत्रों में से किसी एक को जरूर भेजेंगे।”
शादी का समय नजदीक आता देख गुरु जी ने अपने सबसे बड़े पुत्र पृथ्वी चंद को लाहौर जाने का पूछा तो उसने साफ इनकार कर दिया। पृथ्वी चंद को डर था कहीं उसके लाहौर जाने के बाद पिता जी अर्जुन देव को गुरु ना बना दे। पृथ्वी चंद को यकीन था की अर्जुन देव पिता जी का पसंदीदा पुत्र है। उसके बाद गुरु राम दास जी ने मंझले पुत्र महादेव जी से पूछा तो उन्होंने कहा की “में तो वैरागी साधु हूँ, मुझे माफ़ करना पिता जी मुझे दीन-दुनिया के मामलों में कोई दिलचस्पी नहीं है।”
जब आखिर में गुरु जी ने अपने सबसे छोटे पुत्र अर्जुन देव जी से लाहौर जाने के बारे में पूछा तो अर्जुन देव जी ने सह्रदय और विनम्रता के साथ लाहौर जाना स्वीकार कर लिया। लाहौर जाने से पहले गुरु राम दास जी ने अर्जुन देव जी को कहा “जब तक में ना बुलाऊँ तब तक लाहौर में पैतृक घर में रह कर सिखों की जरूरतों और शिक्षा का जिम्मा सभालना।”
जब लाहौर गए हुए अर्जुन देव जी को पाँच महीनों से भी ज्यादा समय हो गया तो अर्जुन देव जी ने गुरु राम दास जी को पत्र लिखा। उस पत्र का कोई उत्तर नहीं मिला, तो कुछ महीने इंतज़ार के बाद लगभग एक साल लाहौर में रहने के बाद अर्जुन देव जी ने दूसरा पत्र लिखा। उसका भी कोई उत्तर नहीं मिला। दोनों पत्र ही पृथ्वी चंद के पास पहले पहुँचे और उसने उन पत्रों को छुपा दिया। गुरु राम दास तक नहीं पहुँचने दिया ताकि अर्जुन देव जी को अमृतसर ना लाया जा सके।
फिर अर्जुन देव जी ने अगले एक साल तक कोई पत्र नहीं लिखा। लाहौर जाने के लगभग दो साल बाद अर्जुन देव जी ने एक तीसरा पत्र लिख कर अपने एक विश्वासपात्र को पत्र देकर अमृतसर भेजा और कहा “इस पत्र को व्यक्तिगत रूप से गुरु रामदास जी के हाथों में ही दिया जाये।” इन पत्रों को “श्री गुरु ग्रन्थ साहिब जी” में “अंग 96-97” पर अंकित किया गया है।
“मेरा मनु लोचै गुरु दरसन ताई ।।
बिलप करे चात्रिक की निआई ।।
त्रिखा न उतरै सांति न आवै
बिनु दरसन संत पिआरे जिउ ।।1।।
हउ घोली जीउ घोलि घुमाई
गुर दरसन संत पिआरे जीउ ।।1।।” ( अंग 96 )
इस पत्र को प्राप्त करने के बाद, गुरु रामदास जी ने पत्र संख्या 3 को देखकर महसूस किया कि इससे पहले दो पत्र अवश्य ही लिखे गए होंगे। अपने सबसे बड़े बेटे की ईर्ष्या को समझते हुए उन्होंने पृथी चंद से पूछा कि क्या वह पिछले दो पत्रों के बारे में कुछ जानता है। पहले तो पृथ्वी चंद ने इनकार कर दिया। लेकिन गुरु के आग्रह और उनकी आज्ञा न मानने के परिणामों को देखते हुए, पृथ्वी चंद अंततः अपने विश्वासघात को स्वीकार कर लिया और पहले के दोनों पत्र गुरु जी को दे दिए। जब गुरु रामदास जी ने उन्हें पढ़ा, तो वे अपने बेटे अर्जुन देव जी की रचनाओं की विनम्रता और ईमानदारी से भावुक हो गए।
=> गुरु रामदास जी ने बाबा बूढ़ा जी को लाहौर भेज कर अर्जुन देव जी को ससम्मान वापिस बुलाया।
=> 1579 से 1581 लगभग दो साल तक अर्जुन देव जी अपने पिता और गुरु राम दास जी के कहने पर लाहौर में रहे तो “भगत छजू” ने कुछ चढ़ावा दिया। इस चढ़ावे से अर्जुन देव जी ने लाहौर के डब्बी बाजार में “एक बावली और लंगर हॉल” बनवाया। यहाँ पर अब “गुरुद्वारा बाउली साहिब गुरु अर्जुन देव जी, लाहौर” बना हुआ है। वर्तमान में यह गुरुद्वारा लाहौर में “भिकारी खान की सुनहरी मस्जिद” के पश्चिम में स्थित है।
=> 26 अगस्त 1581 को बाबा बूढ़ा जी और भाई गुरदास जी से विचार-विमर्श करने के बाद गुरु रामदास जी ने पाँच पैसे और नारियल रख कर गुरु नानक देव जी की गुरुगद्दी को माथा टेका (नतमस्तक हुए) और गुरुगद्दी गुरु अर्जुन देव जी को प्रदान कर दी।
=> 1 सितम्बर, 1581 को गुरु राम दास जी के स्वर्गवास (देहांत) के बाद गुरु अर्जुन देव जी गुरुगद्दी पर बैठे।
=> जब गुरु राम दास जी ने अर्जुन देव जी को गुरुगद्दी प्रदान की तो उसका विरोध पृथ्वी चंद ने किया। पृथ्वी चंद ने अर्जुन देव जी को गुरु मानने से इनकार कर दिया और अपने पिता व गुरु राम दास जी के लिए अपशब्दों का प्रयोग किया। तथा “पृथ्वी चंद” ने सिखों में अपना अलग सम्प्रदाय चलाया जिसे “मीना या मिहरवान” कहा जाता है।यहीं से सिख गुरुओं का परिवार पहली बार गुटों में विभाजित होने लगा। आगे चलकर इन गुट सम्प्रदायों ने विकराल रूप धारण कर लिया। जिसके कारण “गुरु गोबिन्द सिंह जी” ने जीवित गुरु पद को समाप्त करके “श्री गुरु ग्रन्थ साहिब” को गुरु बनाया।
=> 1582 में दूसरे सिख गुरु अंगद देव जी की पत्नी “माता खीवी जी” का देहांत खंडूर साहिब में हुआ। माता खीवी जी के अन्तिम संस्कार में गुरु अर्जुन देव जी भी शामिल हुए।
=> गुरु अर्जुन देव जी ने गुरु राम दास जी द्वारा चलाई गई मसंद प्रथा को पुनर्गठित किया। गुरु अर्जुन देव जी के काल में अमृतसर शहर केन्द्रीय संस्था बन गया। यहाँ सभी सिख हर साल वैसाखी के त्योंहार पर एकत्रित होते थे तथा मसंद भारत के विभिन्न भागों से एकत्रित चढ़ावे को गुरु साहिब के खजाने में जमा करने लगे।
=> 1587 में गुरु अर्जुन देव जी ने व्यास नदी के किनारे “गोबिन्दपुर” नगर बसाया।
=> 1588 में गुरु अर्जुन देव जी ने अमृतसर सरोवर (तालाब) का निर्माण कार्य पूरा किया। जिसे गुरु राम दास जी ने शुरु किया था।
=> 28 दिसंबर, 1588 को अमृतसर सरोवर (तालाब) के बीच में गुरु अर्जुन देव जी ने “हरिमंदिर साहिब” की नींव लाहौर के एक मुस्लिम संत “मियां मीर” से रखवाई। हरिमंदिर साहिब इमारत के चारों तरफ चार द्वार रखने का मतलब था की यहाँ चारों वर्णों ( ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ) और किसी भी धर्म को मानने वाला आ सकता है।

=> हरिमंदिर साहिब का नक्शा खुद गुरु अर्जुन देव जी ने तैयार किया।
=> 1589 में गुरु अर्जुन देव जी ने “संतोखसर सरोवर (तालाब)” का निर्माण कार्य भी पूर्ण करवाया। इस सरोवर का निर्माण कार्य भी गुरु राम दास जी ने शुरु करवाया था।
=> 1590 में गुरु अर्जुन देव जी ने अमृतसर से 23 कि.मी. दूर एक सरोवर (तालाब) खुदवाया और 1596 में इस सरोवर के पास के “गाँव खारा और गाँव पलासौर” के लोगों से “एक लाख सत्तावन हजार रुपये” में जमीन खरीद कर “तरनतारन नगर” बसाया। और 1596 में ही इस सरोवर को पक्का करने के लिए खम्भे लगवाकर ईंटें डलवाई, लेकिन पृथ्वी चंद के कहने पर अत्याचारी “अमीर दीन सराय नूरदी वाले” ने ईंटें चुराकर ले गया।
आगे चलकर 1766 में “जस्सा सिंह रामगढ़िया” ने तरनतारन सरोवर के दो किनारों को पक्का करवाया। और फिर “महाराजा रणजीत सिंह” ने अपने कर्मचारी “मोती” के माध्यम से बाकि के दो किनारों भी सरोवर के पक्का करवा दिया। और 1838 में तरनतारन सरोवर की परिधि को पक्का करने का काम व तरनतारन सरोवर के किनारे एक 156 फुट, 6 इंच ऊँची तीन मंजिला मीनार का निर्माण, महाराजा रणजीत सिंह के पोते “कंवर नौ निहाल सिंह” ने किया।
=> तरनतारन सरोवर पर “गुरुद्वारा श्री दरबार साहिब : गुरु अर्जुन देव जी पातशाही पंजवीं, तरनतारन” बना हुआ है। और सरोवर पर “गुरुद्वारा मंजी साहिब” भी बना हुआ है जिसका सम्बन्ध छेवें “गुरु हरगोबिन्द जी” से है। तरनतारन में यहाँ गुरु अर्जुन देव जी ने 1590 में एक खूह (कुआँ) खुदवाया वहाँ पर अब “गुरुद्वारा गुरु का खूह” बना हुआ है। तथा तरनतारन में गुरु अर्जुन देव जी ने जिस स्थान पर कोहड़ीओं ( कुष्ठ रोगीओं ) के इलाज के लिए कुष्ठ आश्रम खोला था, वहाँ पर “गुरुद्वारा बीबी भानी जी दा खूह” बना हुआ है।
=> 1594 में “पृथ्वी चंद” और उसकी पत्नी “कर्मो” ने माता गंगा जी को चिढ़ाते हुए कहा की “आपके कौनसा बेटा है, अर्जुन देव के मरने के बाद तो गुरुगद्दी हमारे बेटे “मेहरबान” को ही मिलेगी।” जब इस घटना का ज़िकर माता गंगा जी ने गुरु अर्जुन देव जी से किया तो गुरु जी ने कहा की “इसका हल तो “महान संत बाबा बूढ़ा” जी के पास ही होगा, उनसे जाकर कहो वही आपको आशीर्वाद दे सकते है।”
गुरु जी की बात को मान कर माता गंगा जी श्रृंगार करके, पालकी में बैठ कर, एक महारानी बनकर, बाबा बूढ़ा जी के लिए अच्छे-अच्छे फल फ्रुट और अच्छा भोजन (पकवान) लेकर अमृतसर से 20 कि.मी. दूर “चबल कलां गाँव” के पास जंगल में गई। यहाँ बाबा बूढ़ा जी, गुरु जी द्वारा दिए गए काम को पूरा करने के बाद एकांत स्थान पर ईश्वर का नाम सिमरन रहते थे। यहाँ पर अब “गुरुद्वारा बीड़ बाबा बूढ़ा साहिब जी” बना हुआ है।
लेकिन माता गंगा जी को बाबा बूढ़ा जी ने कोई आशीर्वाद नहीं दिया तो माता गंगा जी ने वापिस आकर गुरु जी को यात्रा वर्णन बताया। तो गुरु अर्जुन देव जी ने कहा की “जब आप किसी से कुछ माँगने जाते हो तो भिखारी बनकर जाते हो, ना की महारानी बनकर। फिर से महान संत बाबा बूढ़ा जी के दर पर जाकर आओ। इस बार अगर भीख माँगने ही जा रही हो तो भिखारिन बनकर जाना।” अगले ही दिन माता गंगा जी सादा कपड़े पहन कर, नँगे पैर और अपने हाथ से बना हुआ सादा भोजन लेकर फिर से बाबा बूढ़ा जी के आश्रम गई।
तो महान संत बाबा बूढ़ा जी बहुत प्रसन्न हुए और माता गंगा जी द्वारा लाया गया सादा भोजन खाते हुए उस भोनज में से प्याज को उठा कर अपने दोनों हाथों की हथेलियों से कुचलते हुए भविष्यवाणी की “आपकी कोख से एक महान योद्धा पुत्र पैदा होगा।, जैसे मैंने अपने हाथ से प्याज को कुचल कर टुकड़े किए है, वैसे ही वो भी गुरु नानक देव जी द्वारा चलाए गए भलाई मार्ग में आने दुश्मनों को कुचल कर टुकड़े कर देगा।”

=> बाबा बूढ़ा जी के आशीर्वाद के कुछ समय बाद ही माता गंगा जी गर्भवती हो गई। जब इसका पता पृथ्वी चंद को चला तो उसने दिल्ली के मुग़ल दरबार के राजस्व अधिकारी “सुलह खान” को अमृतसर में कर वसूलने के बहाने छापा मारने के लिए मना लिया। लेकिन कुछ दिनों के बाद सुलह खान एक चलती हुए ईंट-भट्ठी में अचानक गिरने से मर गया। गुरु अर्जुन देव जी को जब पृथ्वी चंद की दुष्ट चाल का पता चला तो उन्होंने गर्भवती माता गंगा जी को साथ लेकर कुछ समय के लिए अमृतसर छोड़ कर अमृतसर से 9 कि.मी. दूर “वडाली” में बस गए।
=> 19 जून, 1595 को इसी वडाली गाँव में गुरु अर्जुन देव जी और माता गंगा जी के घर में “हरगोबिन्द” जी का जन्म हुआ। जो आगे चलकर सिखों के छेवें गुरु बने। इस वडाली गाँव को अब “गुरु की वडाली” नाम से जाना जाता है। यहॉं हरगोबिन्द जी का जन्म हुआ वहाँ अब “गुरुद्वारा जन्म स्थान पातशाही गुरु की वडाली” बना हुआ है।
=> हरगोबिन्द जी के जन्म के कुछ दिन बाद, छेहरटा इलाके के लोगों ने गुरु अर्जुन देव जी से आकर अपने इलाके के खेतों में पानी की कमी से फसलें सूखने की समस्या को हल करने की विनती की, तो गुरु अर्जुन देव जी ने 1595 में एक खूह (कुआँ) की खुदाई शुरू करवाई। यह खूह 1597 में बनकर तैयार हुआ। गुरु अर्जुन देव जी ने इस खूह में छे (6) हरटां ( 6 माहलां ) डाल कर चलाया गया। इसी लिए यह इलाका छेहरटा के नाम से आज भी जाना जाता है। यह खूह आज भी मौजूद है। यहाँ “गुरुद्वारा छेहरटा साहिब” बना हुआ है।
=> पृथ्वी चंद और उसकी पत्नी कर्मों ने तीन बार बालक हरगोबिन्द को मारने की कोशिश की। एक बार साँप से व दो बार जहर देकर, लेकिन विफल रहे।
=> 1598 में अमृतसर से “भाई गुरदास और बिधि चंद” के साथ गुरु अर्जुन देव जी ने पठानकोट (पंजाब) से 10 कि.मी. दूर “गाँव बरथ (वर्तमान में बारठ)” की यात्रा की। गुरु जी गाँव बरथ में बाबा श्री चंद जी से मिलने और “आदि ग्रंथ” के संकलन के लिए बाबा श्री चंद जी के पास रखी हुई पोथियाँ ( पवित्र पुस्तकें ) लेने के लिए गए थे। गुरु जी जब बरथ गाँव में पहुँचे तो बाबा श्री चंद जी ध्यान लगा रहे थे। गुरु जी हर दिन सुबह से शाम तक बाबा जी के ध्यान स्थल पर आते और बाबा जी की समाधि खुलने का इंतजार करते। यह प्रक्रिया 6 महीने तक चली।
6 महीनों के बाद बाबा श्री चंद जी की समाधि खुली और गुरु जी से चर्चा हुई और बाबा जी ने गुरु नानक जी की अपने पास रखी हुई पोथियाँ गुरु अर्जुन देव जी को दे दी। यहाँ गुरु अर्जुन देव जी बैठ कर बाबा श्री चंद जी के समाधि खुलने का इंतज़ार करते थे वह स्थान अब “थम साहिब” के नाम से जाना जाता है। और यहाँ पर गुरु जी रात को रुकते थे, वहाँ पर एक सरोवर का निर्माण करवाया। उस जगह पर “गुरुद्वारा गुरुसर साहिब पादशाही पंजवीं” गाँव बरथ (वर्तमान में बारठ), पठानकोट बना हुआ है।
गुरु नानक देव जी की माँ “माता त्रिप्ता देवी” गाँव बरथ की रहने वाली थी। इसीलिए बाबा श्री चंद जी ने बरथ गाँव में एक आश्रम की भी स्थापना की व यहाँ ध्यान लगाना शुरू किया। और काफी समय तक यहीं रहे। यहाँ पर “गुरुद्वारा बारठ ( बरथ ) साहिब” बना हुआ है। इसी में “थम साहिब” स्थान है।
=> 1599 में गुरु अर्जुन देव जी ने जालंधर (पंजाब) के पास “करतारपुर” नगर बसाया, और एक कुआँ (खूह) का निर्माण करवाया। यहीं पर गुरु जी ने अपने सेवक “भाई वैसाखी राम जी” का गड़वा (लोटा) जो गंगा नदी में गिर गया था, उसे इस खूह (कुँआ) में निकाल कर उसका भ्रम दूर किया। यहीं पर “गुरु हरगोबिन्द जी” ने अपने बागी जनरल “पैंदे खान” को मारा था। यहाँ पर अब “गुरुद्वारा गंगसर साहिब” बना हुआ है।
=> 1601 में “हरि मन्दिर साहिब ( गोल्डन टेम्पल )” के मुख्य भवन का निर्माण कार्य पूरा हो गया। 16 अगस्त 1604 को पुल सहित हरि मन्दिर साहिब का बाकि सारा निर्माण पूरा हुआ। सरोवर के बीच में 67 फुट वर्गाकार चबूतरा बना हुआ है। मन्दिर 40.5 फुट वर्गाकार में है। “मेहराब का दरवाजा” लगभग 10 फुट ऊँचा और 8 फुट 6 इंच चौड़ा है। हरि मन्दिर तक जाने के लिए सरोवर पर 202 फुट लंबा और 21 फुट चौड़ा पुल बना हुआ है। यह पुल 13 फुट चौड़ी परिक्रमा ( परिक्रमा पथ ) से जुड़ा हुआ है, जो मुख्य मन्दिर के चारों और घूमती है।

=> गुरु नानक देव जी के नाम का इस्तेमाल करके गुरु अर्जुन देव जी विरोधी गुट ने कच्ची वाणी लिखनी शुरू कर दी। इससे कच्ची और पक्की वाणी में अन्तर करना मुश्किल हो गया तो गुरु अर्जुन देव जी ने समय की माँग को देखते हुए सिखों के ज्ञान और सिख-संगत को सही राह दिखने के लिए “आदि ग्रंथ” लिखने का मन बनाया।
=> 1597 से 1603 तक गुरु अर्जुन देव जी ने पहले के चार गुरुओं के साथ-साथ भारतीय प्रायद्वीप के सूफ़ी-संतों और महापुरुषों की भी वाणी एकत्रित की।
=> 1603 में गुरु अर्जुन देव जी ने अमृतसर के पास जंगल में शांतिपूर्ण स्थान पर एक सरोवर खुदवाया। इस सरोवर को रामसर सरोवर के नाम से जाना जाता है। इस सरोवर के किनारे गुरु जी और “भाई गुरदास भल्ला जी” ने तम्बू लगाकर कच्ची और पक्की वाणी को अलग करके “आदि ग्रन्थ” लिखना प्रारम्भ किया। यहाँ पर अब “गुरुद्वारा रामसर साहिब” बना हुआ है।
=> अगस्त, 1604 में गुरु अर्जुन देव जी द्वारा बताए अनुसार भाई गुरदास जी ने “आदि ग्रंथ” का लेखन कार्य सम्पूर्ण किया।
=> गुरु अर्जुन देव जी ने गाँव मंगत के “भाई बन्नो जी” को लाहौर जाकर “आदि ग्रन्थ” पर जिल्द बनवाने का निर्देश दिया। भाई बन्नो जी ने गुरु जी से अनुरोध किया कि पहले उन्हें आदि ग्रंथ को अपने गाँव मंगत की सिख संगत को दिखाने की अनुमति दी जाए। गुरु जी ने उन्हें अनुमति दे दी। वर्तमान में “गाँव मंगत” जिला मुख्यालय “मण्डी बहाउद्दीन” ( पंजाब, पाकिस्तान ) से 8 कि.मी. दूर, फलिया-मण्डी बहाउद्दीन रोड पर है। यहाँ पर गाँव मंगत में रात को “आदि ग्रंथ” को रखा गया वहाँ पर अब “गुरुद्वारा भाई बन्नू” बना हुआ है। गाँव मंगत से भाई बन्नो आदि ग्रंथ को लाहौर लेकर आये और जिल्द बनवाने के बाद अमृतसर लेकर गए।
=> 30 अगस्त, 1604 को गुरु अर्जुन देव जी ने जिल्द बनवाये हुए “आदि ग्रन्थ” को अपनी मोहर लगाकर सम्पूर्ण किया और अमृतसर के “हरि मंदिर साहिब” में बाबा बूढ़ा जी द्वारा स्थापित करवाया।
=> 1 सितम्बर, 1604 को बाबा बूढ़ा जी द्वारा आदि ग्रन्थ का पहला प्रकाश हरि मन्दिर साहिब में किया गया। बाबा बूढ़ा जी को हरि मन्दिर साहिब का पहला मुख्य (हेड) ग्रंथि बनाया गया।
=> sikhiwiki के अनुसार, गुरु अर्जुन देव जी द्वारा रचित “आदि ग्रन्थ” को गुरु जी द्वारा 30 रागों में 1948 पृष्ठों में 7000 भजन या शब्द लिखे गए। जिसमें प्रत्येक राग के अंत में कई रिक्त पृष्ठ थे। आदि ग्रन्थ में प्रारम्भिक 5 गुरुओं सहित कुल 34 महापुरुषों की वाणी शामिल की गयी थी।
=> हालाँकि बाद में “दसवें गुरु गोबिन्द सिंह जी” ने अपने पिता और नौवें “गुरु तेग़ बहादुर जी” की वाणी को सम्मिलित करके महापुरुषों की संख्या 35 कर दी व आदि ग्रन्थ के अंगों को संशोधित करके 1430 कर दिया और शब्दों/भजनों की संख्या 5894 कर दी गई। तथा 11वां गुरु, आदि ग्रंथ ( गुरु ग्रन्थ साहिब ) को बना दिया। ( विस्तृत जानकारी के लिए गुरु ग्रन्थ साहिब जी पेज पर पढ़ें )
=> भाई गुरदास जी, गुरु अमर दास जी के भतीजे और भाई ईशर दास जी के पुत्र थे। भाई गुरदास जी की रचना “वरन भाई गुरदास” को गुरु अर्जुन देव जी ने सिख पवित्र ग्रन्थ “आदि ग्रंथ” की “कुँजी” के रूप में नामित करके इस पर अपनी स्वीकृति की मुहर लगाई।
=> पृथ्वी चंद ने अपने गुप्तचरों द्वारा मुग़ल सम्राट अकबर को शिकायत करवाई की गुरु अर्जुन देव जी ने एक धार्मिक ग्रंथ लिखवाया है, जिसमें हिन्दू और इस्लाम धर्म के बारे में गलत लिखा गया है। सम्राट अकबर ने आदि ग्रंथ की एक कॉपी मगवाई, जिसे लेकर भाई गुरदास और बाबा बूढ़ा जी दिल्ली गए और अकबर ने आदि ग्रन्थ की कॉपी के कुछ पृष्ठ पढ़ने के बाद आदि ग्रंथ को “सर्वोच्च संश्लेषण ग्रन्थ, श्रद्धा के योग्य” बताया और 51 सोने की मोहरें श्रद्धा से चढ़ावे के रूप में दी।
=> 27 अक्टूबर, 1605 को मुग़ल सम्राट अकबर की अचानक मृत्यु के बाद दिल्ली राजपरिवार में आन्तरिक कलह रहने लग गयी। अप्रैल, 1606 को अकबर के पोते ख़ुसरो मिर्ज़ा ने अपने पिता मुग़ल सम्राट जहाँगीर का विरोध कर दिया और लाहौर जाते समय तरनतारन साहिब में रुक कर गुरु अर्जुन देव जी से आशीर्वाद लिया। लेकिन जहाँगीर ने लाहौर में ख़ुसरो मिर्ज़ा को हरा कर गिरफ्तार कर लिया।
=> लाहौर का दिवान चंदू मल साही (शाही) वंश का खत्री था। वह अपनी पुत्री का विवाह गुरु अर्जुन देव जी के पुत्र हरगोबिन्द जी से करना चाहता था। गुरु जी के मना करने के बाद चंदू और पृथ्वी चंद ने मिलकर अपने गुप्तचरों द्वारा मुग़ल बादशाह जहाँगीर को तरनतारन साहिब में गुरु अर्जुन देव जी और ख़ुसरो मिर्ज़ा की मुलाकात का वर्णन बड़ा-चढ़ा कर बताया गया।
=> जहाँगीर ने लाहौर के सूबेदार मुर्तजा खान को राजकुमार ख़ुसरो मिर्जा की मदद करने के दण्ड स्वरूप गुरु अर्जुन देव जी से 2 लाख रूपये भरवानें या फिर फाँसी लगाने का आदेश दिया। 25 मई, 1606 को मुर्तजा खान ने किसी बहाने गुरु अर्जुन देव जी को लाहौर बुलाकर गिरफ्तार कर लिया। गुरु जी ने बिना किसी गलती के 2 लाख रूपये देने से इनकार कर दिया।
=> मियाँ मीर की मध्यस्ता से गुरु जी को अपने परिवार से मिलने दिया गया और 25 मई, 1606 को गुरु अर्जुन देव जी ने अपने पुत्र हरगोबिन्द जी को सिखों का छेवाँ गुरु बनाया व हरगोबिन्द को हथियार उठाने और अत्याचार का विरोध करने का आदेश दी।
=> 26 मई, 1606 को लाहौर के दिवान चंदू मल शाह ने 2 लाख रूपये भरकर गुरु अर्जुन देव जी की स्वतंत्रता खरीद ली। और गुरु जी को अपने साथ अपने घर पर कैद कर लिया। चंदू शाह ने अपने कैदखाने में गुरु जी को दो-तीन दिन भूखा-प्यासा रखकर अपनी पुत्री का विवाह गुरु जी के एकलौते पुत्र हरगोबिन्द जी से करवाने के लिए मनाता रहा लेकिन गुरु अर्जुन देव जी ने अपने पुत्र का विवाह करने से साफ इनकार कर दिया। चंदू ने बहुत हथकंडे अपनाये पर गुरु जी नहीं माने। अंततः चंदू शाह ने गुरु अर्जुन देव जी को शेख अहमद सरहन्दी को दे दिया, और सरहन्दी गुरु जी को लाहौर के किले में ले आए।
=> शेख अहमद सरहन्दी ने शाही काजी (मौलवी) शेख फरीद बुखारी से यासा के कानून के अंतर्गत गुरु अर्जुन देव जी के मृत्यु दण्ड का फ़तवा जारी करवा लिया। इस्लाम में यासा का कानून चंगेज खान के समय मंगोलों में प्रचलित हुआ था और फिर तुर्कों में आया। इस कानून में बिना खून (रक्त) बहाए, भयानक यातनाएं देकर किसी इन्सान को मारा जाता है।
=> यासा के कानून के तहत सबसे पहले गुरु अर्जुन देव जी को गर्म लोहे की चादर (तवी) पर बैठाया गया। फिर गुरु जी को उबलते हुए गर्म पानी में बिठाया गया। आखिर में गुरु जी के शरीर पर गर्म रेट डाली गयी जिससे गुरु जी की नाक से खून बहने लगा। खून देख कर यासा का नियम टूटने के डर से शेख अहमद सरहन्दी घबरा गया और उसने आदी रात को चंदू शाह को बुलाया।
=> तीन दिन तक पहले चंदू शाह द्वारा गुरु अर्जुन देव जी को भूखा-प्यासा रखने और फिर दो दिन शेख अहमद सरहन्दी द्वारा यासा के कानून के तहत भयानक यातनाएं देने तथा ऊपर से भयानक गर्मी के मौसम को गुरु अर्जुन देव जी की आत्मा सहन नहीं कर पाई और संसार रूपी शरीर छोड़ कर स्वर्ग की और गमन कर गई। जब चंदू शाह ने आकर देखा की गुरु अर्जुन देव जी का स्वर्गवास हो गया है, तो शेख अहमद सरहन्दी के साथ मिलकर गुरु अर्जुन देव जी के संसार रूपी देह को रात के अँधेरे में लाहौर के पास ही रावी नदी में बहा दिया।
=> 30 मई, 1606 में लाहौर किले में यहाँ यातनाओं के कारण गुरु अर्जुन देव जी का स्वर्गवास हुआ वहाँ पर “गुरुद्वारा डेरा साहिब” बना हुआ है।
=> गुरु अर्जुन देव जी सिख धर्म के शहीद होने वाले पहले सिख गुरु थे। गुरु अर्जुन देव जी को उनकी शहादत के बाद लोगों ने “सच्चा पातशाह” की उपाधि दी।
=> 14 मई 1621 में गुरु अर्जुन देव जी की पत्नी माता गंगा जी का देहांत गाँव “बकाला” ( वर्तमान में “बाबा बकाला”) में हुआ। जो की अमृतसर से 40 कि.मी. दूर व्यास नदी के पास स्थित है। माता गंगा जी ने अपने अन्तिम समय में अपने पुत्र गुरु हरगोबिन्द जी को कहा की “मेरी अन्तिम इच्छा है की मेरी देह (शव) को भी तुम्हारे पिता गुरु अर्जुन देव जी की देह की तरह ही नदी में बहा देना।” गुरु हरगोबिन्द जी ने वैसा ही किया जैसा उनकी माँ ने कहा था। माता गंगा जी की देह को व्यास नदी में बहाने के बाद गाँव बाबा बकाला में प्रतीकात्मक अंतिम संस्कार किया। यहाँ अब “गुरुद्वारा शहीद माता गंगा जी” बना हुआ है।
=> माता गंगा जी को “गुरु महल” की उपाधि मिली हुई थी। यह उपाधि सिर्फ चार गुरु पत्नियों (माता भानी जी, माता गंगा जी, माता किशन कौर जी और माता गुजरी जी) को ही मिली थी।
=> गुरु अर्जुन देव जी की वाणी 30 रागों में 2218 शब्द/भजन लिखे। जो “श्री गुरु ग्रन्थ साहिब जी” में अंकित है। जिनमें से प्रमुख वाणी “सुखमनी साहिब” है। जो गुरु ग्रन्थ साहिब जी में “गउड़ी राग” में अंग 262 से अंग 296 तक लिखी हुई है।